भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुट्ठी और रंग / अनुराधा ओस
Kavita Kosh से
जिस रोज मुझे लगने लगेगा
मेरी हथेलियों में दबा बीज उग आया हैं
कनेर का पेड़ बन
उस दिन एक इंच और बढ़ जाएगी
मुस्कान धरती की
जिस रोज मुझे लगने लगेगा
मेरी मुट्ठी में पानी का रंग कुछ ज्यादा फिरोजी है
उस दिन नदी के दर्रे भर देगा आँखो का पानी
'जिस दिन मुझे लगेगा मेरी हथेलियाँ किसी सोख्ते में बदल चुकीं हैं
उस दिन सदी के घाव को भर देंगे स्वप्नों के रंग से'
जिस दिन बुलबुल ने अपना घोंसला बनाया तुलसी के पेड़ पर
उस दिन प्रकृति महसूस करती है
धरती पर सबके लिए बची है छाँव कहीं॥