भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुनियाँ रोॅ माय / श्रीकेशव
Kavita Kosh से
मुनियाँ रोॅ माय/कोयला बीनै छै
पीठी पेॅ मुनियाँ केॅ लादनें
फाटलोॅ-पुरानोॅ, चित्थी-चित्थी
अँचरा केॅ देखै छै
अँचरा तेॅ छै
मजकि दूधे नै
बिन पानी के/जिनगी केॅ गुनै छै
मुनियाँ रोॅ माय कोयला बीनै छै
जरलोॅ-अधजरलोॅ
रेल के पटरी पर/जे एक दूसरा रोॅ/बराबर दौड़ै छै
जेना/ऊ आरो ओकरोॅ जिनगी !
बीनै छै/सोचै छै
आखिर ऊ की छेकै ?
कोयला आकि राख ?
औंगरी पर जिनगी के दिन गिनै छै
मुनियाँ रोॅ माय कोयला बीनै छै
पीठी पर मुनियाँ केेॅ लादनें ।