भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुरझा गए सब फूल / दिनेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
गालियों का बोझ
चायवाले छोकरे के
सिर पर पटक दो.
बिलबिलाते हुए केचुओं को,
जूतों से मसल दो.
सो जाओ,
सारा गुस्सा
बीबी पर उतार कर.
सुबह-शाम
दिन-हफ्ता-साल
बढ़ती बेचैनी,
मुठ्ठियों में बढ़ता आक्रोश,
आँखों में भरता धुआँ,
बालों में बढ़ती सफेदी,
नियति, नियति, नियति
पीढ़ी दर पीढ़ी,
दर पीढ़ी.
कुछ कर गुजरने की
तमन्ना थी मुठ्ठी में- यहाँ आते समय
हताशा में हाथ फैलाओगे
जब तुम जाओगे.