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मुर्गा हुआ हलाल / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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मुर्गा हुआ हलाल
आँखों में चिंता के काँटे
कब तक बोयें हम
तीन कनौजी तेरह चूल्हे
बाप पूत में बैर
जिनको दूध पिलाया वो ही
काट रहें हैं पैर
आखिर ऐसे ठंडे रिश्ते
कब तक ढोयें हम
बोटी बोटी नुची देह की
बची न तन पर खाल
स्वाद दूसरों को देने में
मुर्गा हुआ हलाल
ऐसी बेदर्दी पर कब तक
नैन भिगोयें हम
मुँह पर खुशहाली की बातें
बांसों उछले दाम
नोन तेल लकड़ी गरीब का
जीना किये हराम
आसमान के नीचे आखिर
कब तक सोयें हम।