भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुश्किल और आसान / सरोज परमार
Kavita Kosh से
जब जंगल में पसर रहा हो सन्नाटा
बहकने लगे हों दड़ियल दरख़्त भी
हवा में घुलने लगी हों साज़िशें
सुबकती घाटियाँ हों बेवक़्त भी
तब बड़ा मुश्किल होता है-
काँपती वल्लरियों को सहलाना
लड़कियों के गुम हुए सपने सजाना
झूठ की पहाड़ियों से सर टकराना
सत्ता को सच का आईन समझाना
तब आसान होता होगा शायद
नस्लों को मिटता देख चुप्पी लगाना
सुविधाओं की डोर थामे खूँटे से बँधना
तपती ज़मीन पर ख़्वाब केसरी सजाना
नसों में बहाते नफ़रत
हँसते हुए बतियाना.