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मुसाफ़िर / मख़दूम मोहिउद्दीन
Kavita Kosh से
तेरे हमराही खो गए रे मुसाफ़िर-
मुसाफिर चले चल ।
न जाने वो क्या हो गए रे मुसाफ़िर-
मुसाफ़िर चले चल ।
तेरी मंज़िलें तेरी नज़रों से ओझल मुसाफ़िर ।
चले चल, चले चल, चले चल, चले चल ।
अँधेरे में अब साथ क्या देखता है
दिया बुझ गया है ।
बहरहल चल रात क्या देखता है
दिया बुझ गया है ।
तेरी मंज़िलें तेरी नज़रों से ओझल मुसाफ़िर ।
चले चल, चले चल, चले चल, चले चल ।
समझ मौत की वादियों से गुज़रता
चला जा रहा है ।
सहर के तआकुब<ref>पीछा करता हुआ</ref> में में गिरता-उभरता
चला जा रहा है ।
तेरी मंज़िलें तेरी नज़रों से ओझल मुसाफ़िर ।
चले चल, चले चल, चले चल, चले चल ।
आता मेरी दुनिया को खराबात बनाता
आँखों से पिलाता कभी होंटों से पिलाता ।
शब्दार्थ
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