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मूँछें-3 / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
मूँछें डरती हैं
इसीलिए पल-पल बढ़ती हैं
चेहरा बिगाड़ती हैं
होंठों पर आ-आ कर गड़ती हैं
कुछ नहीं कहतीं
फिर क्यों रोज़ सुनाई देती है
यह अदृश्य आवाज़-- मूँछें बना लो
हाँ, कभी-कभी पत्नी
पूछ लेती है-- आज मूँछें नहीं बनाईं
नज़रें झुका लेती है सहमकर
डर को सँवारो
तो पत्नी ख़ुश होती है
कट-छँट कर मूँछें भी
मूँछों का डर तो बस इतना है
कि अगर इसकी बात ग़लत निकल गई
तो ये हमें मुँड़ा देगा