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मूर्ति बनाम नारी / पल्लवी विनोद

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जहाँ औरत का दिमाग चलता है, वो घर नहीं चलता
सुना था कभी
जिसने कहा था उससे पूछ नहीं पाई,ऐसा क्यों?

कालांतर में ऐसे बहुत से उदाहरण देखे
जिसने मातृ शक्ति को सम्मान दिया
उस घर को समाज में भी सम्मान मिला
इसके विपरीत वो घर जहाँ औरत प्रताड़ित हुई
वहाँ विपत्ति को स्थान मिला।
पर ये दिमाग चलाने वाली औरतें रहस्य बनी रहीं।

अक्सर देखती थी उसे अपने घर को खुशियों से सजाते
पति के आगे-पीछे मंडराते
रूठे हुए गालों को प्यार से मनाते
गुलदान में लगे गुलाब से काँटे निकालते
बिन बात की बातों पर ठहाके लगाते
सबकुछ कितना सुंदर था

एक दिन खबर आई वो घर ढह गया है
क्यों और कैसे?
सबकी तरह मैं भी तमाशा देख रही थी
तमाम साक्ष्यों की तरह मुझे भी कटघरे में बुलाया गया
हर बार की तरह इस बार भी बुनियाद दोषी थी
उसमें से आती सीलन की बदबू से मेरी साँसे घुट रही थीं
पर वो स्थिर थी,सूनी आंखों से मलबे देख रही थी
कोई शिकायत नहीं, कोई सवाल नहीं।

आज बहुत दिनों बाद मिली थी
नवरात्रि के मेले में,माँ की प्रतिमा को एकटक निहारते हुए
मुझसे बोली, नारी मूर्ति बन कर ही पूजी जा सकती है
जिस दिन इस शिला खण्ड को अपने अंदर मौजूद
मस्तिष्क व हृदय का अहसास हो जाता है
उसका घर टूट जाता है।