भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मूल-निवास / नरेन्द्र कठैत
Kavita Kosh से
हमारा पुरखोंन्
अंगूठा छाप होण पर्बि
हमारु जौर-बुखार
छौळ-झप्येटू
खारु घूसी-घूसी
कागज मा मंतरी
पर पौढ़-लेखी
कागज रगड़ी-रगड़ी बि
न हम पर
अक्ल ऐ
न हमुन् तौंकि
क्वी कीमत समझी
अब त बात
इख तक बढ़गि
कि हमारु असली
घर-द्वार खन्द्वार
अर मूल निवास
कागज मा चढ़गी।