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मृग-तृष्णा / महेन्द्र भटनागर

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चांद से जो प्यार करता है —
वह अकेला ज़िन्दगी भर आह भरता है !

ऐसा नहीं होता अगर,
तो क्यों कहा जाता कलंकित रे ?
मधुकर सरीखा उर, तभी
तो कर न सकता स्नेह सीमित रे !

चांद से जो प्यार करता है —
नष्ट वह अपना मधुर संसार करता है !

ऐसा नहीं होता अगर,
तो दूर क्यों इंसान से रहता ?
नीरस हृदय है ; इसलिए
ना बात मीठी भूलकर कहता,

चांद से जो प्यार करता है —
कंटकों को जानकर गलहार करता है