भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेघा बरसे / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौंच फटी
चिड़िया अम्बर में
टुक-टुक ताक रही
सूखे ताल
मछरिया पल-पल
अन्तिम आँक रही
छाती फटी धरा की
बरसे
अगनिवाण अम्बर से।

बातें तो बाते हैं ऐसी
जिनके छोर नहीं
रातें हैं
अधियारी ऐसी
जिनके भोर नहीं
सपने ऐसे मिलें
उड़ाकर
दूर ले गए घर से

सीख लिये
विज्ञान ज्ञान से
शस्त्र नए गढ़ना
भूल गए पर लोग
प्यार की
भाषाओं को पढ़ना
बाहों में
भर लिये समन्दर
बूँद-बूँद को तरसे।

रिश्तों की दूरियाँ
हो गयी
जैसे मीलों की
और खड़ाऊँ
मर्यादा की
टूटी कीलों की
दोनो ओर ध्रुवों की सीमा
तुम तरसे
हम तरसे
बरसे!
2.6.2017