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मेढक तुम नहीं बदले / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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मेढक ! तुम नहीं बदले
चीटियों के वंशज बदल गए हैं
बड़े होने लगे हैं अब वे शरीर से
कुछ अधिक समझदार भी दीखते हैं इन दिनों
चलते हैं तो लाव-लश्कर में खो नहीं जाते
संघर्ष करते हैं अपने कार्य को सार्थक अंजाम देने तक

रामघोड़ी के स्वभाव में भी परिवर्तन है
एक पर एक सवार होकर चलना छोड़ दिया है लगभग
जो आगे बढ़ रहा होता है बढ़ने देते हैं चुपचाप
पश्चाताप में थक-हारकर बैठ नहीं जाते बीच रास्ते में
चढ़ते हैं चढ़ाइयाँ और उतरते हैं पहाड़ से भी

लीलगाहों को भी देखा गया इन दिनों बदले-बदले
जंगल छोड़कर बस्ती में कदम रखने लगे हैं
मनुष्य के स्वभाव में बहुत कुछ सीखने लगे हैं
कोई खदेड़ता है तो भाग नहीं जाते, न ही तो चीखते भर हैं
तान के सीना खड़े हो जाते हैं लड़ने की हुंकार भरते हैं

परिवर्तन हर जगह दिखा है इन दिनों
बादल नहीं गरज रहे हैं आजकल बहुत
धरती नेह-नीर के भरोसे ही नहीं बैठी है थक-हार कर
नदियाँ, तालाब, समुद्र सभी जी रहे हैं अपना अपना जीवन
सभी कर रहे हैं संघर्ष, रखें हैं सभी अपना अस्तित्व संभालकर

मेढक ! तुम नहीं बदले
नहीं बदली तुम्हारी आदत टर्रटोइं टर्रटोइं करने की
मरते रहते हो सारी उम्र कीचड़ में लिपटे हुए पानी की चाह में
पा जाते हो थोड़ा तो छा जाती है खुमारी, हड़प लेना चाहते हो नदियाँ सारी
छोड़ दो चिल्लाना, पूरी बस्ती की नजर तुम पर है, सीख लो परिवेश में रहना