मेरा कोई गांव नहीं / बालस्वरूप राही
महानगर की भीड़ भाड़ से, बन्द फाइलों के पहाड़ से
बचकर कहां भाग जाऊं मैं, मेरा कोई गांव नहीं।
मैं तो जन्मा अस्पताल के ठंडे, जड़ सन्नाटे में
ढोलक कहां बजी होगी तब, रहा शुरू से घाटे में
घर छोटा था, छत बेगानी और ज़रा सा था आंगन
कमरे में ही हंसते गाते बीत गया मेरा बचपन।
किसी गांव की पगडंडी पर घूमे मेरे पांव नहीं।
देश बसा होगा गांवों में, हम जैसे तो शहरी हैं
शहर जहां पर घृणा द्वेष की जड़ें बहुत ही गहरी हैं
भीड़ भाड़ जलसे जलूस हैं, राहत का तो नाम नहीं
भाग दौड़ है, पर अपनों से मिलना जुलना आम नहीं
कड़ी धूप है अनुबंधों की, सम्बन्धों की छांव नहीं।
ताज़ी हवा, हर खेतों का स्वर्ग किस तरह पाऊं मैं,
कोई मुझे बता दे अपना गांव गहां से लाऊं मैं
गाते हैं सब गीत गांव के, करते है गुणगान सदा
जाऊं किसके गांव मगर मैं, छुट्टी लेकर यदा कदा।
हारी बाज़ी जो जितवा दे ऐसा कोई दांव नहीं
बच कर कहां जाऊं मैं, कोई गांव नहीं।