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मेरा मन / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
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मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता!
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल,
वह हरसिंगार के फूलों सा सुकुमार सहज कुम्हला जाता!
फूला न समाता खुश होकर, या घर भर देता रो-रोकर,
या तो कहता, 'दुनिया मेरी, या 'जग से मेरा क्या नाता!
मेरे मन की यह दुर्बलता, सामान्य नहीं निज को गिनता,
वह अहंकार से उपजा है, इसलिए सदा रोता-गाता!
मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया,
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता!