भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा सर था, कटारी रूबरू थी / सर्वत एम जमाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा सर था, कटारी रूबरू थी

मेरी आईनादारी रूबरू थी


मैं सच को सच बताना चाहता था

मगर सोचा विचारी रूबरू थी


कसीदे लिख के दौलत मिल तो जाती

मुई ईमानदारी रूबरू थी


सफाया जंगलों का हो गया फिर

अकेली सिर्फ़ आरी रूबरू थी


खुदा को लोग सजदा कैसे करते

इधर शाही सवारी रूबरू थी


वतन था इक तरफ़, घर एक जानिब

मुसीबत कितनी भरी रूबरू थी