भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी आत्मा / अरविन्द श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारा प्रेम मेरी धमनियों में समाया हुआ है
देखो तुम्हारे लाल रक्त कण मेरे खून से कितने
मिलते जुलते हैं
वही सांसें हैं जो घूम कर इधर-उधर आ-जा रही है
एक ही जीवन-गंध में सने हैं हम दोनों
रात के चौड़े सीने पर हम अपने एकाकी ख्यालों को ख़त्म करते है
सबेरे जो पीले फूल खिलते हैं
उसे हम छोड़ देते हैं मधुमक्खियों के लिए

रोज़ एक मज़बूत मेज़ पर
मैं अपनी आत्मा को रख आता हूँ वहां
जहां तुम्हेँ लंच लेते
देखती है वह
टुकुर टुकुर !