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मेरी इस विनीत विनती को / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मेरी इस विनीत विनती को सुन लो, हे व्रजराजकुमार!
 युग-युग, जन्म-जन्ममें मेरे तुम ही बनो जीवनाधार॥
 पद-पंकज-परागकी मैं नित अलिनी बनी रहूँ, नँदलाल!
 लिपटी रहूँ सदा तुमसे मैं कनकलता ज्यों तरुण तमाल॥
 दासी मैं हो चुकी सदाको अर्पणकर चरणों में प्राण।
 प्रेम-दाम से बँध चरणोंमें, प्राण हो गये धन्य महान॥
 देख लिया त्रिभुवन में बिना तुम्हारे और कौन मेरा।
 कौन पूछता है ‘राधा’ कह, किस को राधा ने हेरा॥
 इस कुल, उस कुल-दोनों कुल, गोकुलमें मेरा अपना कौन!
 अरुण मृदुल पद-कमलोंकी ले शरण अनन्य गयी हो मौन॥
 देखे बिना तुम्हें पलभर भी मुझे नहीं पड़ता है चैन।
 तुम ही प्राणनाथ नित मेरे, किसे सुनाऊँ मनके बैन॥
 रूप-शील-गुण-हीन समझकर कितना ही दुतकारो तुम।
 चरणधूलि मैं, चरणोंमें ही लगी रहूँगी बस, हरदम॥