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मेरी ज़मीनें उनकी धरती / बाल गंगाधर 'बागी'

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ऊसर बंजर बांगर धरती
मेरी ज़मीने उतनी परती

उपजाऊ अनमोल रत्न-सी
मेरी ज़मीनें उनकी धरती
ऊसर बंजर बांगर लगती
मेरी ज़मीनें उनकी परती

हल उनके हलवावे हम
पशु उनके चरवाहे हम

खोद ज़मीनें कुआं करती
हर ताकत मेरे नस-नस की
उनके घर के काम है करती
घर वाली मेरे घर-घर की

वो हंसते जब रोते हम
शकल मेरी जब रोती नम

खूब लूटे हैं माल गुजारी
अंग्रेजी शासन में सारी
घर के सारे गहने लेकर
फिर छीने जायदाद हमारी

ज़मींदार से भूमिहीन हम
लाचार हुए थे लिये छीन सब

घर मेरे भूखों था मरता
उनका जितना पेट निकलता
मेरा चूल्हा कभी था जलता
पर घर उनके पकवान था बनता

अक्सर भूखे सो जाते हम
या सारी रा अकुलाते हम

जीवन की दुश्वारी में अक्सर
खेत खलिहानों में उनके पर
जोते बोते निराते हम ही
मिलती गाली मार, मजदूरी पर

वो बहू बहन ले जाते जब
हम पकड़ उन्हें चिल्लाते तब
वो लाठी घूसे से मार-मार
अधमरा हमें बनाते तब

हम दादा बाबू उनको कहते
लेकिन वो मुझको गाली बकते
हम जब उनसे लड़ने उठते
वे थानेदार से मिलके अकड़ते

कलमकार भी लिखे कम
उल्टे बोले क्या हैं हम

अक्सर खेतों खलिहानों में
दोपहर या फिर दालानों में
वे खुले आम रेप करते हैं
चौराहे या फिर बागानों में

ये सरपंच से चौकीदार
उनमें भाई या रिश्तेदार
क्या हमें कुछ भी मिलता
जब न्यायाधीश वे जमींदार

उनकी घर की महिलाएं भी
मेरी माँ बहनों घुड़कती हैं
काम कराती घर का सब
पर दूर-दूर ही रखती हैं

इसीलिये उनको पीटकर
अधमरा उन्हें बनाये हम
इज्जत दौलत शोहरत सब
वे लिए छीन संस्कृतियों संग

घर मेरे घनघोर उदासी
हर बस्ती भी धंसती जाती
बिन वर्षा भी उमड़ती
आंखें वो सैलाब भी लाती