भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी नज़रें तुमको छूतीं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी नज़रें तुमको छूतीं
जैसे कोई नन्हा बच्चा
छूता है पानी

रंग रूप से मुग्ध हुआ मन
सोच रहा है कितना अद्भुत
रेशम जैसा तन है
जो तुमको छूकर उड़ती हैं
कितना मादक उन प्रकाश की बूँदों का यौवन है

रूप नदी में छप-छप करते
चंचल मन को सूझ रही है
केवल शैतानी

पोथी पढ़कर सुख की दुख की
धीरे-धीरे मन का बच्चा
ज्ञानी हो जाएगा
तन का आधे से भी ज़्यादा
हिस्सा होता केवल पानी
तभी जान पाएगा

जीवन मरु में
तुम्हें हमेशा साथ रखेगा
जब समझेगा अपनी नादानी