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मेरी परछाईं / असंगघोष
Kavita Kosh से
परछाई
कभी नहीं हो सकी
गगन
अपने में ही वह रही
हमेशा मगन।
सूरज सदियों से
एक सा है
अपने ही समय से बींधता
अंकुराता है
फैलता है नभ में
रोज-रोज अस्त होने
व्यापता है अनन्त में
आदमी के स्वभाव की ही मानिन्द
पल-पल अपना कद
बदलती हुई परछाईं
सूरज से कभी नहीं सीखती
पुनः पुनः स्फूर्त हो
ऊर्जा समेट
दूसरों के लिए निरन्तर
खुद ही जलते रहना
स्वयं प्रकाशमान हो
व्याप्त अंधकार मिटाना
यह नकलची परछाईं
अंधरात्री के
अनेकों मित्रों में से एक
मेरी भी मित्र
अंधेरे के आगोश में
समाने वाली
अंधकार घिरते ही
क्यों साथ छोड़ जाती है।
तुम कभी मेरे रहे नहीं
मेरी परछाईं से भी
अपवित्र होने के डर से
भागते रहे हो दूर
कमबख्त मेरी परछाईं।
मेरी क्यों नहीं हो पाई।