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मेरी बस्ती में / निदा नवाज़

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मेरी बस्ती में
आज भी हैं
वे बड़ी-बड़ी कोठियां
लोहे और सीमेंट से बनी
खिड़कियों पर आकाशी रंग के पर्दे
मेरी बस्ती में
आज भी हैं
वे छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ
उन से आ रही खांसने की आवाज़ें
कुछ ज़िन्दा लाशों की
जिनका सर्वस्त
केवल दो रोटियाँ
और मैली-कुचली लंगोटियां
इन झोंपड़ियों की कभी कोई
मर्यादा नहीं रही है
इन का सब कुछ रहा है
कोठियों के लिए
किन्तु
उनका खून,उनका पसीना
एक प्रश्न बनकर
उभर आया है
उस लोहे और सीमेंट पर
और उस प्रश्न को
वे रेशमी आकाशी रंग के पर्दे भी
रोक नहीं सकते
वे उपरी मंजि़ल पर लटकी
नील रंग की तख़्ती भी नहीं
जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा है

  • ‘हाज़ा मिन फज़ले रब्बी’


(*यह सब प्रभु की ही कृपा है)