मेरे नयनों में आज अचानक / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
मेरे नयनों में आज अचानक
छाया गड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
बदल सकता है नहीं स्वभाव
बदलते रहते मन के भाव
साथ में लेकर अमिट अभाव
व्यथा आँखों में उमड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
बुद्धि लेकर विवेक की तुला
उसी पर उन भावों को सुला
हृदय का द्वार छोड़कर खुला
तर्क से आते ही लड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
दीनता की फैली यह बाँह
ताड़ की यह पतली सी छाँह
मिली, अपने में आप तवाह
जिन्दगी ही पूरी सड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
खिले थे आशाओं के फूल
निराशा के झूले पर झूल
सुपथ पर भी पा अगणित शूल
सभी पंखुड़ियाँ झड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
गया साहस अन्तर को छोड़
वेदना मन को रही मरोड़
उदासी से ही नाता जोड़
भावना इससे जकड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
क्षोभ का उठा एक तूफान
मारकर चुटकी में मैदान
छोड़ कर जीवन को सुनसान
कामना कुंठित अकड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी
सुना करता था जिसका नाम
उसी चिन्ता को लाख प्रणाम
कि जिसकी जीवन पर अन्जान
नजर तिरछी आकर पड़ गयी
किसी की छाया गड़ गयी