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मेरे पास न आओ मैं सिंहासन हूँ / बलबीर सिंह 'रंग'

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मेरे पास न आओ मैं सिंहासन हूँ
सुख-समृद्धि के नाम युद्ध का ज्ञापन हूँ
सकल-सृष्टि के आकर्षण का मंत्र हूँ
सम्मोहन हूँ, वशीकरण हूँ, उच्चाटन हूँ

सत्ताधीशों की साँसों का सहचर हूँ
भीतर वैसा नहीं कि जैसा बाहर हूँ
मुझे रिझाने बीन बजाते बाजीगर
शान्ति-पिटारी में अशान्ति का विषधर हूँ

कोई मेरे मस्तक मुकुट सजाता है
कोई मेरे हाथों ध्वज फहराता है
राजनीति है मेरी जीवन संगिनी
वैभव से मेरा भाई का नाता है

मैं बूढ़े दशरथ को ज्ञान सिखा आया
नाम राम का राजाराम लिखा आया
मुझे मिला सौभाग्य भरत की संगति का
वैसा शासक-संत न अब तक मिल पाया

मैंने किया सुयोधन को था दुर्योधन
काम न आया धर्मराज का उद्बोधन
मेरे कारण दुःशासन निर्लज्ज बना
हुए महाभारत को उद्यत मन मोहन

नन्द वंश के संग बहुत दिन खेला मैं
विक्रम का मंत्री तक रहा अकेला मैं
इनसे पहले मुझे तथागत ने तजा
देख चुका संहार सृजन की बेला मैं

शब्द बेध का मैं ही उपसंहार हूँ
मैंने ही जयचन्दी रास रचाया था

गौरी बाबर अकबर से मैं था मिला
रहा जफर तक यही बराबर सिलसिला
मेरा ‘कोहेनूर’ ‘कम्पनी’ ले गई
मैं नन्दन में उपजा लन्दन में खिला

बहुत दूर से देखा वीर सुभाष को
काट रहा था पराधीनता पाश को
अब तक उसकी विरचित कथा अधूरी है
उलट दिया जिसने पूरे इतिहास को

वर्तमान से मुझे शिकायत भारी है
कह सकता कुछ नहीं बड़ी लाचारी है
घेरे लिया है मुझको दोनों ओर से
आगे सेवक है पीछे अधिकारी है

मुझे बुन दिया है विधान की जाली में
चरणामृत भर दिया सुरा की प्याली में
सिन्धु पार से जिस दिन मैं दिल्ली लौटा
दिग्विजयी बैठा था नौआखालो में

उसने मेरा सदुपयोग बताया था
जो कहता था करके उसे दिखाया था
उसे धर्म का ज्ञान कर्म का बोध था
इसलिये तो कर्मवीर कहलाता था

अब जननायक का सम्बोधन कौन ले
अट्टहास के बदले रोदन कौन ले
हलधर भूखा है खेतों की मेंड़ पर
‘जनपथ’ या ‘अशोक’ में भोजन कौन ले

बन्धु सुनो मेरे अन्तिम अनुरोध को
अधिक बढ़ावा मत दो गतिअवरोध को
मेरी पिछली भूलों को दुहराओ मत
शत्रु न अपना समझो स्वस्थ विरोध को

सन्त विनोबा मुझे मिटाना चाहते
क्या जानें किस लोक पठाना चाहते
नया रंग भर लेकर जर्जर तूलिका
मेरे अगणित चित्र बनाना चाहते

नहीं दान से दशा देश की सुधरेगी
मावस में किस तरह चाँदनी निखरेगी
मेहनत का मूल्यांकन होगा एक दिन
पूँजी की प्राचीर ध्वस्त हो बिखरेगी

सर्वोदय तो सीमाओं से दूर है
व्यापकता के लिए बड़ा मशहूर है
देना हैतो उसको जीवन दान दो
जो मरने के लिए आज मजबूर है

काम न चलता नेताओं के नाम से
समता कैसे हो दलगत परिणाम से
बेकारी, भुखमरी, बाढ़ का कोप है
महँगाई बढ़ रही बड़े आराम से

भूल गये तुम हर-हर बन्दे मातरम्
स्वतंत्रता का मन्दिर वन्दे मातरम्
वशंकोटि कर लेकर अपने साथ में
निकल पड़े थे कहकर वन्दे मातरम्

जन-गण मन में समाधिस्त भू डोल हैं
अपनी झोली में मोती अनमोल हैं
दयानन्द, अरविन्द, विवेकानन्द से
ठाकुर हैं, नजरुल हैं, वल्लाथोल हैं

नादिम जैसे कश्मीरी कचनार हैं
वीर सिंह से गीतों के सरदार हैं
सावरकर को थाह सिन्धु की ज्ञात है
ये सब अपनी ही वीणा के तार हैं

सातवलेकर से वेदों का नाद लो
अमृतपाद से संस्कृत के अनुवाद लो
चौबे जी से सीखो सम्पादन कला
‘पुरुषोत्तम’ से अपना गाँधीवाद लो

कलाकार से तुम नाहक नाराज हो
यद्यपि उसकी वाणी के मुहताज हो
उसकी कृति से झंकृत यह सद्भावना
जैसे भी हो मंगलकारी राज हो

कला मनुजता में देवत्व जगाती है
पशुता को मानवता तक पहुँचाती है
कण कण में भरती संवेदनशीलता
जीवन को जीने के योग्य बनाती है

सुकवि निराला अलग गली में घूमता
सरस्वती का पुत्र न चाँदी चूमता
उसका अनहद नाद नहीं सुन पाये तुम
जिसका स्वर सुन तृण-तृण द्रुम द्रुम झूमता

उसको ‘तुलसी’ का घर-घर सत्कार है
‘रामशक्ति पूजा’ का सुयश अपार है
उसे न देखो तुम संकीर्ण निगाह से
वह उदारता में भी अधिक उदार है

सबसे निर्देशन की नेक सलाह लो
मंजिल तक पहुँचाने वाली राह लो
प्रेमचन्द के सपने भी साकार हों
शरत्चन्द्र की किरणों से उत्साह लो

सबको भोजन, वसन और आवास दो
नैतिकता को तुम अपना विश्वास दो
पंख उगे हैं अभी अमन के पंछी के
उसके उड़ने को असीम आकाश दो

हिम्मत है तो मुझ में ठोकर मार दो
प्रासादों से नीचे मुझे उतार दो
सफल बनाने निर्माणों की योजना
नये खून को अवसर दो अधिकार दो

गीता गायक जैसा सारथि चाहिए
‘इति’ कल तक हो गई, आज ‘अथ’ चाहिए
विधिवत विधि का रिक्त कमंडल हो गया
गंगा तो आ गई, भगीरथ चाहिए

क्रान्ति अनल में जलने को तैयार हूँ
तिल तिल जलकर गलने को तैयार हूँ
ऊब गया हूँ प्रभुताओं के बोझ से
जैसे ढालो ढलने को तैयार हूँ