भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे पास नहीं है श्रद्धा / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझ पर गर्वित अहंभाव का शासन नही चलेगा
किन्तु स्वयं झुक कर तुम मुझे झुका लो, जितना मन हो।

ऊंचे से ऊंचे पर्वत से ऊंचा मेरा माथा
पर घाटी के नम्र भाव को मैं निज शीश झुकाता
मैं कठोर हूँ पर ऐसा जैसा होता है हीरा
एक पाँखुरी से गुलाब की मैं घायल हो जाता।

मैं पतझरी निगाहों के सम्मुख निर्भीक खड़ा हूँ
किन्तु विनत उनके प्रति जिनकी पलकों में सावन हो।

बोले मुझसे स्वयं देवता-'अपना शीश झुकाओ,
पदरज धारण करो भाल पर, मनचाहा वर पाओ।
मैं ने कहा कि मैं जड़ता के सम्मुख नहीं झुकूंगा
रूप त्याग पत्थर का पहले तुम निर्झर बन जाओ।

मैं बेमोल बिकूँगा केवल उस निर्धन के हाथों
जिसके कर में किसी पराई पीड़ा का कंचन हो।

मुक्तामाल नहीं लाया मैं, थोड़ा सा चंदन है
भेंट चढ़ाने को पूजा के सुमन नहीं हैं, मन है
सच है मैं अविनयी और अविनम्र रहा जीवन भर
मेरे पास नहीं है श्रद्धा मात्र प्यार का धन है।

सोना जड़े बन्द द्वारों पर थाप नहीं दूंगा मैं
वहां रहूंगा खुला सभी के लिये कि जो आंगन हो।