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मेरे मन की कछु न भई / स्वामी सनातनदेव

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राग भूपाली, तीन ताल 19.8.1974

मेरे मन की कछु न भई।
अटकन-भटकन में ही प्यारे! सिगरी वयस गई॥
लागी लगन अगिन नहिं साँची, तीनों ताप तई।
जग-जंजाल न कट्यौ, हिये में विषय-बवाल बई॥1॥
यह मन होत न थिर एकहुँ पल, कलपत नई-नई।
कलपत-कलपत ही निसि बीती, नींद न नैंकु लई॥2॥
कहा कहों, पद-प्रीति न जागी, जियकी जरनि जई।
तुम्हरो ह्वै तुम ही सों भटक्यौ, व्यर्थहि वयस गई॥3॥
अब का करों, थक्यौ सब पौरुष, तुव पद सरन लई।
तुम ही लाज रखहु कुछ प्यारे! जो कछु गई गई॥4॥
दरस नाहिं तो देहु तरस ही, हुइहै कबहुँ जई।
तरस होय तो होय सरस हूँ, सुचि रति-रस उनई॥5॥