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मेरे वो ख़त / प्रीति 'अज्ञात'
Kavita Kosh से
भेजे थे तुमको कुछ मैंनें
रातों को गिन-गिन तारे
फ़िर बैठी थी उम्मीदों में
अब तू मेरा नाम पुकारे
माना कि दूरी है थोड़ी
पर हममें कुछ गिले नहीं हैं
मेरे जो नन्हे से ख़त थे
क्या वो तुमको मिले नहीं हैं?
छुप-छुप कर देती हूँ तुमको
तेरा मुझ पर जो अधिकार
यूँ बाक़ी है चाह अभी ये
कदमों में भर दूँ संसार
पहले थी जो झिझक गई अब
लब पहले से सिले नहीं हैं
मेरे वो नन्हे से ख़त क्या
अब भी तुमको मिले नहीं हैं?
पलकों के आँचल से निकलीं
सारी किरणें तुम तक भेजीं
पैग़ाम तेरा अब तक न आया
हमने सारी उम्र सहेजी
जीवन के आख़िरी चरण में
पहले से वो सिलसिले नहीं हैं
एक बार अब आकर कह दो
सच में,वो ख़त मिले नहीं हैं!