मेरे शहर का आदमी / शरद कोकास
अभी अभी कल तक
दंगों की खबर सुनकर
विचलित नहीं होता था
मेरे शहर का आदमी
दंगा वृद्धि करता रहा
उसके भौगोलिक ज्ञान में
अखबारों में पढ़-पढ कर
वह दिखाता रहा बच्चों को
भारत के नक्शे में
मेरठ, दिल्ली, भिवंडी और चंडीगढ़
यों शामिल रहे उसकी चिंता में
देश के हालात
शहर का शांतिमय जीवन
ईश्वर से मांगी दुआओं में
परिवार का सुरक्षित भविष्य
धुआँ, आँसू और वर्दियाँ
देख देख दूरदर्शन पर
गिरगिट की तरह
रंग बदलते रहे
भय और संतोष उसके चेहरे पर
इसी बीच झरोखों से झाँकते रहे
साम्प्रदायिक संगठनों के नेता
और भाँपते रहे
उसके चेहरे से टपकती
असुरक्षा की भावना
वास्ता देकर
ईश्वर की शक्ति
और पवित्र ग्रंथों का
परोसते रहे
उसका गौरवशाली अतीत
रक्तरंजित इतिहास के पृष्ठों पर
वही आदमी आज
अपने स्वतंत्र चिंतन की अंत्येष्टी कर
शामिल हो गया है
कठमुल्लाओं की भीड़ में
आँखों में द्वेष का वकालतनामा लेकर
नपुंसक विरोध के स्वरों में
कर रहा है धर्म की वकालत
पड़ोस से बहकर आनेवाली
अफवाहों में
भ्रम की केंचुल ओढ़
सुरक्षित है वह
धर्म की बाँबी में
इससे पहले कि नक्शे में
शहरों की जगह
उसे नज़र आएँ
केवल रक्त के निशान
घरों को जलाने वाली आग
जला डाले अपने साथ
आस्था और पारम्परिक विश्वास
ज़रूरत है
केंचुल छोड़ देने की
छँटने के बाद
आँखों के आगे जमी धुन्ध
सामने होंगे वही लोग
एक हाथ में लाठी
दूसरे में अभय की मुद्रा लिए हुए
मेरे शहर का आदमी
होंठों पर लिए होगा
एक जीवित प्रतिवाद
क्योंकि वह
केवल मेरे शहर का आदमी नहीं होगा।