भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेले से आईं लड़कियाँ / नील कमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कि रास्ते दो ही थे
उन्हें चुनना था एक को
वे मेले से बाहर आना चाहती थीं

एक रास्ता उन्हें लाता
मेले के चमक-दमक में
उनके होंठ तब इस तरह
सूखे-दरके नहीं रहते

दूसरा रास्ता जाता
मेले से बाहर की दुनिया में
जहाँ ख़रीददारों की मर्ज़ी चलती

उन्होंने बिक जाने को
बचे रहने के पक्ष में चुना

एक लड़की जुट गई आख़िरकार
बाबू साहब के लिए
वे लड़की को सोते-जागते
ओढ़ते-बिछाते, खाते-पीते
और डकारते

लड़की भूलने लगी
मेले से पहले के बसंत
जबकि बसंत उतर चुका था
उसके तन-मन में
बदलता हुआ करवटें

लड़की ने प्रेम किया था
यदि यह किंवदंती सच है
लड़की ने पीठ पर ढोई थी
धूप की गठरियाँ

छाँह की हत्या भी कर डाली
चिलचिलाती दोपहरी में

लग गया था मेला
सावन के अंधे बाबू साहब
रहने लगे गूँगे

मेले से आई लड़की
फिर आई मेले
जिस राह गई थी मेले से बाहर ।