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मैं, तुम और ईश्वर / राहुल द्विवेदी

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1.

मैं
यानि दंभ,
या फिर पुरुष?

दोनों की ध्वनि
अलग हो सकती है
पर अर्थ?

भटकता ही रहा यों ही व्यर्थ!

तलाशता रहा प्रकृति
जो ठहर गया अनायास
तुम तक आ कर

और तुमने
लाकर रख दिये सारे रंग
मेरी गोद में

जिससे सिंझता रहा तुम्हारा
समर्पण
और फलता रहा मेरा पौरुष!

2.

तुम
प्रकृति थी
तुम
धारिणी थी

सब कुछ धारण किया
बिना किसी प्रश्न के चुपचाप

कहती थी अक्सर ही–
स्त्रियों और धरती में
यही समान है,
कि जैसा बीज दिया–
वैसा का वैसा अंकुरण लौटाया
बिना राग द्वेष के

धारण करने की विलक्षणता
बनती गई तुम्हारी कमजोरी

तुम धारण करती रही
तमाम दुश्वारियाँ
और जज्ब करती रही
अंदर तक बहुत गहरे

सहती रही पीड़ाएँ–

और पूजती रही पत्थरों को,
कि पुरुष और संतति बने रहे
बदले में लेती रही उनके हिस्से
की भी पीड़ाएँ सघनतम रूप में...

सम्भालते और
सँवारते अपना नन्हा
आकाश,
खुद ही, एक दिन
विलीन हो गई

धरती,
धारिणी में।

3.

तुम्हे
छीन कर मुझसे,
खुश तो
ईश्वर भी न हुआ होगा

न ही उसे मिला होगा कुछ
अप्रत्याशित

किसी ने दंड भी तो न दिया–
इस जघन्य
अपराध के लिए उसे?
 
मैं भी नहीं ले पाया
कोई भी बदला
उस तथाकथित ईश्वर से

कितनी अजीब सी बात है–
शनैः-शनैः
समय के साथ-साथ
भुला दिया जाता है दोष
उस हत्यारे का
जिसे सब
ईश्वर कहते हैं

अब ईश्वर और
पुरुष याकि कापुरुष
अभिशप्त हैं
अपने अपने अकेलेपन के लिए!