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मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा / अज्ञेय
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मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!
तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ-
या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ,
तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ-
या मैं दीप-शिखा जिस पर तुम जल-जल जीवन पाओ;
क्यों यह विनिमय जब हम दोनों ने अपना कुछ नहीं रखा?
मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!
क्यों तुम दूर रहो जैसे सन्ध्या से सन्ध्या-तारा?
मैं क्यों बद्ध, अलग, जैसे वारिधि से अलग किनारा?
हमें बाँधने का साहस क्यों मधुर नियम भी पाएँ?
तुम अबाध, मैं भी अबाध, हो अनथक स्नेह हमारा!
प्रिय-प्रेयसि रह कर कब किसने उस का सच्चा रूप लखा!
मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!
1934