मैं अपने को एकदम / अज्ञेय
मैं अपने को एकदम उत्सर्ग कर देना चाहता हूँ, किन्तु कर नहीं पाता। मेरी इस उत्सर्ग-चेष्टा को तुम समझतीं ही नहीं।
अगर मैं सौ वर्ष भी जी सकूँ, और तुम मुझे देखती रहो, तो मुझे नहीं समझ पाओगी।
इस लिए नहीं कि मैं अभिव्यक्ति की चेष्टा नहीं करता, इस लिए नहीं कि मैं अपने भावों को छिपाता या दबाता हूँ।
मैं हज़ार बार अभिव्यक्ति का प्रयत्न करता हूँ, किन्तु उस का फल मेरे भाव नहीं होते; उन में 'मैं' नहीं होता। वे होते हैं केवल एक छाया मात्र, मेरे मन के भावों की प्रतिक्रिया मात्र...मेरे भावों की तत्समता उन में नहीं होती, यद्यपि उन का एक-एक अणु मेरे किसी न किसी भाव से उद्भूत होता है।
मैं कवि हूँ, किन्तु मेरी प्रतिभा अभिशप्त है। संसार का चित्रण करने का सामथ्र्य रखते हुए भी मैं अपने को नहीं व्यक्त कर सकता।
दिल्ली जेल, 23 जून, 1932