भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं आज बनूँगा जलद जाल / रामकुमार वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं आज बनूँगा जलद जाल।
मेरी करुणा का वारि सींचता रहे अवनि का अन्तराल॥
मैं आज बनूँगा जलद जाल।

नभ के नीरस मन में महान
बन सरस भावना के समान।
मैं पॄथ्वी का उच्छ्वासपूर्ण--
परिचय दूँ बन कर अश्रुमाल॥
हा! यहाँ सदा सुख के समीप
दुख छिप कर करता है निवास।
मैं दिखा सकूँगा हृदय चीर
रसमय उर में है चपल ज्वाल॥
अपने नव तन को बार बार
नभ में बिखरा दूँ मैं सहास।
यह आत्म-समर्पण करे किन्तु
मेरे जग जीवन का रसाल॥
मैं आज बनूँगा जलद जाल।