जेठ की माह की किसी शाम को प्रत्यंचित
कोई बांस की तरह
मैं अतीत को चुमने के लिए जाती हूँ।
सूरज की तपिश से जलकर
दरारों में फटी हुई ज़मीन पर
मेरे और मेरे अतीत के बीच एक पहचान है
बिना किसी वर्तमान और भविष्य के आधार पर
मैं जान जाती हूँ कि मेरा अतीत
फटा हुआ है, टूटा हुआ है
और मेरा अतीत जान जाता है
कि मुझमें भी बांस की तरह खोखलापन है।
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