मैं कर्ण / रश्मि प्रभा
मैं कर्ण
पिता अधिरथ
और राधे का गुनहगार!
ताउम्र
क्षत्रिय वंश सुनने के लिए
कुंती पुत्र कहलाने के लिए
अपने आक्रोश में
पिता की सकारात्मकता से अलग
नकारात्मक रूप से तपता रहा!!
०००
समय ने
परिस्थितियों से जूझने के लिए
जन्म से कवच कुण्डल दिया था
लेकिन अपमान की पीड़ा में
मैंने सब स्वाहा कर दिया...
राधे और अधिरथ ने
मुझे सारे मान दिए
मेरी हर भूख के आगे
एक निवाला लिए खड़े रहे!
वह मेरे प्रश्नों की भूख हो
या खौलते वक़्त की पीड़ा हो
उनका हाथ मेरे सर पे रहा!
०००
माना ज़रूरत पड़ने पर ही
कृष्ण ने मुझे अपने समकक्ष बिठाया
मेरे सत्य को शब्दों में उजागर किया
निःसंदेह,
एक प्रलोभन दिया
पर मौका तो दिया -
मुझे सत्य के साथ होने का
सत्य को विजय दिलाने का
लेकिन मैंने असत्य की मित्रता का मान रखा!
०००
यूँ दुर्योधन को भी ज्ञात था
मेरा पराक्रम
मेरी निष्ठा...
उसने भी मुझे अंग देश का राजा बनाया
अपनी जीत के लिए!
०००
मुझे भी क्या ज़रूरत थी
कवच कुण्डल देने की
जन्मगत विरासत किसी और को सौंपने की?
यदि मैं मौन ही रह जाता
कुंती को कुछ न कहता
तो कम से कम मेरा दर्द तो उनके साथ जाता...
०००
यदि मैं दानवीर स्वभाव से कमज़ोर हुआ
तो कुंती तो एक नाज़ुक स्त्री थी
समाज के भय से
यदि उन्होंने मुझे प्रवाहित कर दिया
तो क्या गलत किया!!!
०००
कुरुक्षेत्र तो मेरे मन में था
कितनी मौन लड़ाइयाँ मैं लड़ता गया...
इससे बेहतर था
मैं पांचो भाइयों को गले लगा लेता
और कुंती के आँचल से
अपनी आँखें पोछ लेता
अधिरथ और राधे के साथ कहीं दूर चला जाता
काश!
मैं सबको जीवन दान कर पाता
काश!!