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मैं खानाबदोश / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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ढोता अपनी इच्छाएँ
अपने ही शहर में
यहाँ से वहाँ
पूछती रहीं तुम
क्या मुझे प्यार करते हो
या मेरी देह को?
सोचता रहा, सदियों तक
क्या देह मन से अलग थी
या प्यार देह से किया
पर मन ना दिया
विस्थापित अपने आपसे
लड़ता रहा युगों तक
इस प्रश्न से
कि प्रश्न किसे किया
तुम्हें
या तुम्हारी देह को
सौंप रखी है जो
तुमने बाजार को
प्रेम कहाँ था?
ये तो सब व्यापार था
मन से देह तक
तरह-तरह के सामान घूम रहे थे
तुम्हारे अंदर बसे
बाजार को लुभाने के लिए
रोया बहुत तुम्हारे प्यार के लिए
उससे भी ज्यादा
उन शब्दों के लिए
जो तुम बार-बार
आग से कुरेदती थीं
कब होगा अंत
इस खानाबदोशी का
कब तक अलग-अलग जन्मों में
भिन्न-भिन्न ब्रह्मांडों मे
मिलता, बिछड़ता रहूँगा?
कब तक भागता रहूँगा?
अपने देश से,
अपने वतन से
अपनी चेतना से
प्यार तो बस
चेतन का चेतना से
देह तो साधन है मिलन का
जिसे तुम प्रश्न बनाए बैठी हो
यहाँ से वहाँ तक
फैलाये बैठी हो
देह की भी सीमा है
मन की भी सत्ता है
इससे परे जो बचता है
वही तो है
शाश्वत प्यार के लायक।