भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं गाता ही रह गया / राकेश खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने कितनी बार अधर पर मैंने नव संगीत सजाया
पर सरगम का एक शब्द भी उतर कंठ में न आ पाया
मैं गाता ही रह गया गीत घर आँगन देहरी द्वार के
और बिखेरे तभी किसी ने मोती मेरे प्यार के

दीपक की लौ ने अनजाने एक शलभ के पंख जलाये
और हवा बेध्यानी में कलियों के तन की गंध चुराये
लिखें बहारें वादी में जा सात रंग की एक कहानी
तट-चुम्बन से पुलकित होती पल पल पर लहरें दीवानी

रहा ढूँढता पुस्तक में, मैं कारण इस व्यवहार के
लेकिन बिखरा दिये किसी ने मोती मेरे प्यार के

पिस पिस कर मेंहदी हाथों के बूटों को रंगीन बनाये
कुब¥नी दे सुमन प्रीत के प्रथम मिलन की सेज सजाये
विलग शाख से हुई पत्तियाँ वन्दनवार बनी मुस्कायें
सहते पड़ती मार ढोलकी, पल पल मंगल आरति गाये

मैं समझाता रह गया तरीके प्राणों की बलिहार के
तब तक बिखरा दिये किसी ने मोती मेरे प्यार के

सपनों की परवाज़ नापती पल पल नभ की सीमाओं को
खुली आँख की अमराई में मिले नीड़ को कोई कोना
बरगद की फुनगी पर खोजे छाँह थका कोई वनपाखी
और नज़र के सन्मुख आता रहा अकेला एक डिठौना
मैं कहता ही रह गया चमन से किस्से गई बहार के
तब तक बिखरा दिये किसी ने मोती मेरे प्यार के