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मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ५ / शैलजा पाठक

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मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
सवेरे संझा ठाकुर जी को
दीया बारती इया
एक गीत बुदबुदाएगी
कांपते हाथ से नहीं छूट जायेगा
कलशे का जल
आंख में नहीं फैला रहेगा सफेद जाला

लगभग बुझ चुकी आंख से
लाचार बूंदें नहीं अटकी रहेंगी
झुर्रियों के तहों में
इया निखहरे खटिया पर
झूलती हुई नहीं गाना चाहेगी कोई हताश गीत
ना पुरानी फोटो से बतियायेगी

मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
इया ƒघर भर के लोगों के साथ बैठी
कहानी सुनाएगी
बाबा की ठिठोली सुन दुहरी हो जाएगी
बुखार सर्दी से बचाव का नुस्खा बताएगी
इया हमारे आंगन में ठहरी
हमें वही पुराना सोहर सुनाएगी
भरा रहे ƒघर की दुआ देती इया
हमारी खिलखिलाहट बटोरती
चैन से सो जाएगी।