मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है / आलम खुर्शीद
मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है
अब तआकुब<ref>पीछा करना</ref> में वो महताब<ref>चन्द्रमा</ref>नज़र आता है
गूंजती रहती हैं साहिल<ref>किनारा</ref> की सदाएं हर दम
और समुन्दर मुझे बेताब नज़र आता है
इतना मुश्किल भी नहीं यार! ये मौजों का सफ़र
हर तरफ़ क्यूँ तुझे गिर्दाब<ref>भँवर</ref> नज़र आता है
क्यूँ हिरासाँ<ref>निराश</ref>, है ज़रा देख! तो गहराई में
कुछ चमकता सा तहे-आब<ref>पानी के भीतर</ref> नज़र आता है
मैं तो तपता हुआ सहरा<ref>रेगिस्तान</ref> हूँ मुझे ख्वाबों में
बे-सबब खित्ता-ए-शादाब<ref>हरा भरा इलाका</ref> नज़र आता है
राह चलते हुए बेचारी तही-दस्ती<ref>ख़ाली हाथ, महरूमी</ref> को
संग<ref>पत्थर</ref> भी गौहरे-नायाब <ref>नायाब मोती</ref> नज़र आता है
ये नए दौर का बाज़ार है आलम साहिब!
इस जगह टाट भी किमख्वाब<ref>एक प्रकार का बेहद क़ीमती कपड़ा</ref> नज़र आता है