मैं
जिलाए
औ’ जगाए ही रहूँगा
देह का दुर्लभ दिया।
चेतना से
ज्योति की जीवंतता से
तम यही तो हर रहा है-
आंतरिक
आलोक से
भव भर रहा है
सत्यदर्शी कर रहा है।
रचनाकाल: १८-०३-१९९१
मैं
जिलाए
औ’ जगाए ही रहूँगा
देह का दुर्लभ दिया।
चेतना से
ज्योति की जीवंतता से
तम यही तो हर रहा है-
आंतरिक
आलोक से
भव भर रहा है
सत्यदर्शी कर रहा है।
रचनाकाल: १८-०३-१९९१