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मैं तथा मैं (अधूरी तथा कुछ पूरी कविताएँ) - 21 / नवीन सागर
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चारों तरफ फैले हुए संसार में
जो कुछ भी सुंदर है उस पर
मेरी परछाई का परदा पड़ा है
अपनी ही आवाज में डूबी
मेरी आवाज का कोई पता नहीं
किसी गुजरी हुई पुकार में
सन्नाटे के तार खिंचे हैं
जहां शोर में पलट कर देखा मैंने
जानते हुए कि कुछ नहीं
मेरा अक्स पानी में हिलता रहा
जिसमें सॉंवली लहरें हिल रही थीं
फिर मैंने सोचा
मैं कभी खुद को भूल पाऊंगा!