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मैं तुम्हें आज़ाद करता हूँ / मनोज श्रीवास्तव

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मैं तुम्हें आज़ाद करता हूँ

मेरे लफ्जों की पागल भीड़
उमड़ नहीं पड़ेगी
तुम्हारे सुनहरे प्रपंचों के
हीरक पत्ते नोचने,
मेरे सबकों का पहाड़
ढह नहीं पड़ेगा निढाल
तुम्हारी बेशकीमती परछाही को
धर-दबोचने

मैं उदघोषित कर रहा हूँ आज
कि मैं अपने बाद
वापस ले लूंगा
अपने अल्फाज़
और नहीं बांधूंगा तुम्हें
और तुम्हारी उच्छ्रुन्खल करतूतें
आरोपों-प्रत्यारोपों के
नागपाश से

हां, वाकई मैं
अपनी भोथरी कविताओं से
तुम्हारे रक्तचूसक थूथनों पर
आईंदा नहीं करूंगा वार,
तुम बेखटक
हवाई यात्राएं करो,
मंचों प्राचीरों से
देशभक्ति के जुमले भौंको,
जम्हूरियत के बासी नारे मिमियाओ,
बेहयाई के बुरके पहन
मंडियों की बरक़त बढ़ाओ,
खौफनाक मज़हबों पर
कत्लेआम के चटख मुलम्मे चढ़ाओ,
माफिया सरगनों से
हम पर हुकूमत धौंसवाओ,
मेरे भूखे-नंगे-अपाहिज बच्चों से
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर
तेल-मालिश कराओ,
हमारे तार-तार बदन से
पौरुष की आखिर बूँद तक छानकर
अपने लिए वियाग्रा सीरप तैयार कराओ,
इस निहत्थे-निरीह कौम को
नपुंसक बनाने वाले
अपने प्रिय षडयंत्रों का स्वांग खेलो,
तुम चाहो तो
कुछ भी कर लो,
मैं अपने नीति-वचनों से
तुम्हें आज़ाद करता हूँ

जाओ!
मैं तुम्हारे नाम
यह राष्ट्र लिखता हूँ.