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मैं पालूंगा एक सपना / निदा नवाज़

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मैं पालूंगा एक सपना
जिस में होगी एक पूरी सृष्टि
एक सुंदर शहर
जहां अभी तक
नहीं तराशा गया होगा कोई इश्वर
न ही जानते होंगे लोग झुकना
न ही टेढ़ी हो गई होंगी
उन की रीढ़ की हड्डियां

मेरे सपने में
ईजाद नहीं हुई होंगी
तिजोरियां
और न ही ज़ंजीरें

जिन लोगों के पास नहीं होता कोई ईश्वर
वे नहीं बनाते, तलवारें, किरपान और त्रिशूल
न ही उनके पास होता है डर
और न दूसरों को डराने वाली कोई बात
जहां तिजोरियां नहीं होतीं
वहां नहीं होती भूख

जहां ताले नहीं होते
वहां नहीं होते चोर
जहां मालिक नहीं होते
वहां नहीं होती ज़ंजीरें

मैं अपने सपने को पालूंगा और बड़ा करूंगा
मेरा सपना भरेगा
संघर्ष के धरातल पर
ख़रगोश की किलकारियां
मैं उसमें बोऊँगा इच्छाओं के सारे बीज
टांकूंगा भावनाओं के सारे पुष्प
 

मेरे सपने में उडेंगी
तर्क की रंगीन तितलियाँ
चहकेगी
यथार्थ की बुलबुल
मेरे सपने में पनपेगी
मिट्टी की सोंधी-सोंधी ख़ुशबू

मैं अपना सपना कोयले की खान में काम करने वाले
मज़दूर को दूंगा
वह मेरे सपने को सर्चिंग टार्च में बदल देगा
जो उसको खान की अँधेरी सुरंगों से निकाल कर
सृष्टि के अंतिम छोर तक ले जाएगी
जहां होगा उसका एक पूरा संसार

मैं अपने सपने को
स्कूल जाते बच्चों के टिफिन में रख लूंगा
जिस को देख कर वे भूल जाएंगे
भारी बस्तों के बोझ से घिसी
अपनी नन्ही पीठ का नन्हा सा दर्द

मैं अपना सपना
वैज्ञानिक को दूंगा
जो उसको जीवन की प्रयोगशाला की
मेज पर पड़े
उस कंकाल आदमी पर आजमाएगा
जिस पर युगों से केवल
प्रयोग ही किए जा रहे हैं
मेरे सपने से उस पर उभर आयेगा मांस
और उस में दौड़ेगा जीवन

मैं अपने सपने को रोप लूंगा
सरिता के पानी पर
उसकी लहरों पर दहकेगा
एक पूरा ब्रम्हाण्ड
जिस में पिघल जाएगा
वह अकेला हंस भी
जिसकी आँखों में
केवल मेरे नाम की इबारत लिखी है

मैं अपना सपना परोस लूंगा
शरणार्थी शिविर में जन्म लेने वाले
उन सभी बच्चों की आँखों के थालों में
जिनकी मांऐं
अपने सूखे खेतों को खुला छोड़ने पर मजबूर हैं
दूसरों के चरने के लिए
केवल एक रजिस्ट्रेशन कार्ड बनवाने के लिए
और उसमें एक काल्पनिक पितृ नाम भरने के लिए

मैं अपना सपना मछुआरे को दूंगा
जो बुन लेगा उससे
एक रंगीन जाल
और पकड़ेगा
सागर की सबसे सुंदर मछली
जिस पर कभी किसी
मगरमच्छ की नज़र न पड़ी हो
और न ही उस की आँखों में
अटका हो
किसी का फैंका कोई तीर
मैं उसको अपने मन के
अक्वेरियम में पालूंगा

मैं अपना सपना समुद्र को दूंगा
बदले में मांगूंगा उसका सारा नमक
जिसको छिडक सकूं एकांत में
अपने उस ताज़े से घाव पर
जिसमें फड़फडा रही है
क्रान्ति नाम की एक नई कविता.