भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं बंजारिन / रेखा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत बार सोची है मैने
बीती बिसार देने की बात
बहुत बार चाहा है
कहीं उतार कर रख़ दूँ
सिर पर से यह गठड़ी
जिसमें अपना व्यतीत लिए
फिरती हूँ
मैं बंजारिन

कितना चाहा है
उतार दूँ यह गठड़ी
जिसमें बँधी है
टूटी चूड़ियों की तरह सतरंगी उम्मीदें
रेशमी और नाज़ुक

सिर पर से उतार दूँ यह सारा आकाश
जिसमें सितारों की तरह टँक गए हैं
बीते हुए दिन

सुना है
क्षण ही जीवन है

हर क्षण में बीती हूँ मैं
पर हर बीता हुआ क्षण
जुड़ गया है मुझसे
टूट- नहीं पाती हूँ उससे
और सिर उठाए फिरती हूँ
अपना व्यतीत

लगता है
वर्तमान एक संकरी सुरंग है
छोड़ आयी हूँ पीछे
हरी-भरी घाटियाँ

जो बाहर है
वही वर्तमान है
जो भीतर समा गया
है वही अतीत

समय__
नदी का बहाव
और वर्तमान
इस नदी पर बाँधी
काँपती-सी पुलिया

अतीत_
कट चुका रास्ता
भविष्य__
सामने खड़ा स्वप्निल शिखर
मन
एक अजायबघर है
अतीत-कँधे पर बैठे प्रेत की तरह
जब-तब कहानी कहता है
जो बीत चुका है उसकी
मेरा व्यतीत
जिसे सिर पर उठाए फिरती हूँ
मैं बंजारिन

1982