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मैं भी लूं / हरीश भादानी

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मैं भी प्राण तो लूं
इक इरादे की मथानी को
बांहों-बांहों
बांध लिया
मथ-मथ ही दिया
कल्मश के समंदर को
और उजलते गए
उन पसीनों की तरह
वही सोने का कलस
मैं भी हाथ तो लूं
मैं भी प्राण तो लूं
वे ख्यालों के
किसन ही किसन
बलंदी के पहाड़ उठाये गए
तोड़-तोड़ गए
बारूद के इंदर का अहम
फसले-ज़ज़्ब़ात हुए
उन शरीरों की तरह
वह हवा बीज वही
मैं भी प्राण तो लूं
गांव की
एक अल्हड़ सी हंसी
फैंक गए
वे सियासत के बयाबां में
वे उकेर गए
वक्त के पत्थर पर
लोहू का जमीर
ग़ज़लती ही गई
उन जुबानों की तरह
वे ही आलाश-हरफ़
मैं भी आवाज तो लूं
मैं भी प्राण तो लूं