मैं माँ होना चाहती हूँ / सत्या शर्मा 'कीर्ति'
एक बंजर भूमि सा आस्तित्व लिए
संवेदना के तीरों पर खड़ी कुछ अधूरी हसरतें हैं
मेरी / कि मैं माँ होना चाहती हूँ
हाँ ,कहतें है लोग मुझे मैं बंजर हूँ तो क्या मेरी ममता मात्र इसलिए अपरिभाषित रह जायेगी कि मैं माँ नहीं हूँ ।
पर है क्या कसूर मेरा
इस जैविक प्रक्रिया को मैंने तो नही किया था सृजित
इस अधूरेपन को दूर कर पूर्ण मातृत्व का एहसास करना चाहती हूँ।
मैं माँ नही हूँ किन्तु माँ होना चाहती हूँ
क्या करुँ ऊर्वरक नहीं हैं मेरे कोख
पर बच्चे के नन्हे कोमल स्पर्श
अपने मन, अपने आत्मा, अपने शरीर पर महसूस करना चाहती हूँ।
लोग कहते हैं तुम अपूर्ण हो
पर देखा है मैंने कली खिलते अपने भीतर
छोटे छोटे अंगुलियों को सहलाया है अपने ओठों से
मेरे अंदर भी अनेक धाराएँ है ममता की
जो दूध की नदियाँ बहाना चाहती है
क्या करुँ / कि कोंपल नहीं फूटते मेरे अंदर
पर देखो ना कैसे मेरी रुह ने लिपटाये हैं हजारों भ्रुण पुष्पित होने के लिए/
कि कैसे मेरी हृदय की कोख ने धारण किये हैं नव जीवन की अनगिनत कल्पनाएँ
हाँ, मैं करती हूँ महसूस बढ़ते हुए जीव अपने अंदर।
उसकी चंचलता सा, उसके पैर मारने सा, उसके हिलने सा।
उसके तुतलाते शब्द सुन पूरी रात जागने सा
उसके गीले कपड़े को अपनी ममता से सूखने सा
उसकी मासूम हँसी पर पूरी उम्र गुजार देने सा ....
लोग कहते हैं बहुत कष्टकारी होते हैं प्रसव के पल
मैं उस सुखद पल के कष्ट को झेलना चाहती हूँ
हाँ, बंजर हूँ, पर माँ बनना चाहती हूँ ...