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मैं यदि चाहूँ भी तो / कविता वाचक्नवी

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मैं यदि चाहूँ भी तो


मैं यदि चाहूँ भी तो
चाँद
सदा मुस्काता रहेगा
उन सारी हवाओं के
संगीत भरे जादू के परदे के पीछे?
या पत्तों की पुलक कोई
सूरज के द्वार जा
अपने चिरायु होने की
गुहार दोहरा पाएगी?
रथ के सारे पहिए
तोड़ डाले जिन्होंने
आलोकपुत्र थे वे
किसी पर्वत ने नहीं रोका उन्हें
कोई पर्व अछूता नहीं रहा उनसे
वे गरुड़-ध्वजाएँ ले
कभी भी
आ विराजते हैं
सिंहासनों पर
सारी विद्युत पताकाएँ
करतल ध्वनियों-सी ताल देती हैं
नदियों के किनारों से उछालें लेता है पानी।

पीपल की डाल पर
कोयलों के अंडे सेते कौए
क्या जानें
देवपुत्र हैं ये
चोंच से आघात तो वे सब करेंगे
खोजता है
गोद के विश्वास का शिशु
श्याम वर्णी
भ्रम हटाकर
ब्रह्म क्या आकाश की उँचाइयों में ही मिलेगा
दाँत के नीचे दबे तिनके
कवच का रूप धारे
नीड़ के आश्वासनों की पहुँच तक जा
जब कलाइयाँ थाम लेंगे
दूब या आकाश
या तब साथ होंगे?
मैं यदि चाहूँ भी तो;
क्या?