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मैं लिखना चाहती हूं / हिमानी

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मैं लिखना चाहती हूं
कुछ ऐसे लेख
जो जुड़े हों
देश, दुनिया और समाज से

कुछ ऐसी कविताएं
जिनमें न हो बारिश, फूल और भंवरे
जिनमें हो भूख, समानता, संघर्ष और क्रांति की बातें

आज भी
जब मैं लिख रही हूं कुछ
तो चाहती हूं
कि लिखूं
कोरोना संकट से जूझ रहे लोगों के हालातों
और इंडिया और भारत के बीच फैले
तमाम विरोधाभासों की कहानी

मैं चाहती हूं कि लिखूं
ध्वस्त होते उन तमाम जन आंदोलनों के बारें में कुछ
जो एक नया चोला पहनकर
छेड़े गए थे
मगर जिनकी पटकथा
नेताओं के चरित्र पर ही आधारित थी
और जिन्होंने बिल्कुल
नेताओं की तरह वादों को तोड़ने के लिए ही भरा था
बड़ी-बड़ी बातों का दम

मैं लिखना चाहती हूं गरीबी रेखा के उन आंकड़ों के बारे में
जिन पर हमेशा संसद, टीवी चैनलों और अखबारों में बहस होती है
और हमेशा ये गिनती अधूरी रह जाती है कि कितने लोग
यूं अखबार बिछाकर और ओढ़कर ही सो रहे हैं फुटपाथों पर
और भी न जाने कितनी खबरें हैं, जिनसे हर रोज गुजरते हुए
मैं उन पर सहमती हूं, सोचती हूं, उन्हें समझती हूं
और कुछ लिखना चाहती हूं।

लेकिन
मैं
बस... लिखती हूं
और लिखती जाती हूं
तुम्हें,
और
तुम्हारे इन्तजार को।