मैं विदेह की तृषा / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
तू है जहाँ, वहाँ आ पाना, तन के वश की बात नहीं है
इस तन से नाता टूटे, तो तुझसे मिलना हो सकता है!
आँखों में तैरती उदासी, लहराती आंसू की छाया,
ऐसा लगे, कि मेरी काया में तेरी उतरी है तेरी काया,
दर्पण ने, इस विह्वलता को, सहजयोग का नाम दिया है
सहज योग का नाम दिया है,दर्पण से नाता टूटे, तो तुझसे मिलना हो सकता है!
गन्ध बने उच्छ्वास, प्राण का गुह्य द्वार बरबस खुल जाये,
तेरे साये से लगते हैं, मुझको मेरे-अपने साये,
उपवन ने, इस दिवा-स्वप्न को, महामिलन तक कह डाला है
उपवन से नाता टूटे, तो तुझसे मिलना हो सकता है!
मैं जागूँ तो नींद सताये, ओ’ सौऊ तो नींद न आये,
मंदिर में उदास हो जाऊं, मैखाने में जी घबराये,
यह मन, मेरी इस गति को ही, दुर्लभ गति कहलाता है
इस मन से नाता टूटे, तो तुझसे मिलना हो सकता है!
बेसुध कर जाती हैं सुधियाँ, चेतन कर जाती मदहोशी,
मैं विदेह की तृषा, तृप्ति की नजरों में करुणा का दोषी,
दर्शन, मेरे चिर-यौवन को, काल-सिद्धि कह कर छलता है
दर्शन से नाता टूटे, तो तुझसे मिलना हो सकता है!