मैं संवर लूँ / मनीषा शुक्ला
बस मुझे तुम प्रेम का अधिकार देना,
मैं संवर लूँ।
सौंपना चाहो जिसे, उपनाम उसको सौंप देना
दो मुझे वनवास, राजा राम उसको सौंप देना
जागने दो हर कंटीला स्वप्न मेरे ही नयन में
मांगती हूँ मैं तपस्या, धाम उसको सौंप देना
बस मुझे दो बाँह तक विस्तार देना,
मैं बिखर लूँ।
भान है मुझको, चरण की धूल सिर धरते नहीं हैं
राजमहलों के कलश, हर घाट पर भरते नहीं हैं
गन्ध भर ले देह में या रूप से ही स्नान कर लें,
केतकी के फूल फिर भी शिव ग्रहण करते नहीं हैं
देह माटी नेह की, आकार देना,
मैं निखर लूँ।
आज प्यासी हूँ, तभी तो मांगती हूँ मेह तुमसे
प्रीत है नवजात जिसमें, प्राण मुझसे, देह तुमसे
फिर नहीं अवसर मिलेगा साधने को यह समर्पण
फिर नहीं धरती चलेगी, मांगने को गेह तुमसे
बाद में तुम प्राण का उपहार देना,
मैं अगर लूँ।