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मैं सागर से नहीं मिलती / राज हीरामन

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एक नदी
शहर-शहर बहती
कहती ---
मैं सागर से नहीं मिलती !
मैं तो वापस अपने श्रोत को जाती !
वह घूमती रहती
भटकती रहती
गाँव-दर-गाँव
जंगल-दर-जंगल
इस शहर से उस शहर
अपने खुद की राह बनाती
कहती---
मैं कभी नहीं थकती !
एक नदी….
वह पत्थरों को चूमती
दलदलों में फंसती
झरनों में झरती
सर पटकती है
अपने को घायल करती
चलती-दौड़ती
रूकती-थमती
कहती---
मैं कभी नहीं मरती!
एक नदी….
वह नहर-नालों को
छोटे-बड़ों को
साथ लेती बहती
सबको सागर का रास्ता बताती
सड़े-गलों को अपनती
स्वच्छ करती
सबका मैला उतारती
कहती
मैं कभी मैली नहीं होती?
एक नदी…..
वह खेतिहरों को पानी देती
हरियाली उसी से होती
जीव-जन्तुओं में जान फूँकती
किनारों में बसेरा बसाती
कूड़े-लाशों को बहाती
गंदगियों को अपने में समाती
दुर्गंध को हटाती
कहती---
मैं हमेशा स्वच्छ रहती !
एक नदी…..
वह चंचल होती बाढ़ में
पागल होती सुखाड़ में
कभी पानी कम
तो कभी पानी ज्यादा
कभी उतार देखती
तो कभी चढ़ाव सहती
कभी शांत
तो कभी अशांत होती
कहती---
मैं कभी नहीं रूकती !
एक नदी….
स्रोत कहता---
रट लगाता---
लौट जाओ ए नदी !
अब के बिछड़े
कब मिलेगी?
तुम तो कहती थी---
मैं सागर से नहीं मिलती
मैं तो अपने स्रोत को जाती !
एक नदी……
नदी का पानी
जब महासागर से मिला
नमक जब मीठा पानी से
तब मिलन का अनुभव हुआ
अपने को मिटाकर
दूसरे से मिल जाने का गौरव हुआ
नदी कहती---
मैं तो विस्तार पाती
एक नदी……
वह स्रोत से कहती---
कल छोटी थी
आज विस्तार पा गई!
कल सिर्फ नदी थी
आज महानदी हो गई!
कल नाले-नहर थी
आज महासागर बन गई
कल अकेली थी
आज मेले में आ गई
कल प्राण थी
आज महाप्राण हो चली!
अब तो मैं स्रोत को नहीं जाती
एक नदी
शहर-शहर बहती
कहती---
अब तो मैं स्रोत को नहीं लौटती
मैं तो सागर को जाती
एक नदी……